ब्लू व्हेल के जाल से जब एक चौदह साल के बच्चे को पुलिस ने बचाया था तो उसने भी यही शिकायत की थी कि उसके माता-पिता के पास उसके लिए जरा-सा भी समय नहीं है। दिन भर वे दफ्तर में रहते हैं। घर आते हैं तो अपना कम्प्यूटर या मोबाइल लेकर बैठे रहते हैं। वह कुछ पूछता भी है तो या तो उसे डांटकर चुप करा दिया जाता है या वे जवाब ही नहीं देते। एक तो मध्य वर्ग के वे माता-पिता जो रोजगारशुदा हैं, उन्हें इन दिनों 24×7 के हिसाब से काम करना पड़ता है। दफ्तर का जो काम अधूरा रह गया, वह काम घर में भी चला आता है। ऐसे में अगर शिशु को वे टाइम नहीं दे पा रहे हैं तो इसमें क्या आश्चर्य। नौकरी को बनाए और बचाए रखने के लिए जैसे चौबीस घंटे भी इन दिनों कम पड़ने लगे हैं। ऐसे में बच्चों से बातें कब करें।
लेकिन हम सब जानते हैं कि छोटे से बच्चे से बात करना कितना आनंददायक अनुभव होता है। इसके अलावा जब आप बच्चे से बातें करते हैं, आपके होंठ जिस तरह से हिलते हैं, जिस तरह की ध्वनियां निकलती हैं, बच्चा उनकी ही नकल करता है। जैसे कि तोते को बोलना सिखाने के लिए उसके सामने बार-बार शब्दों को दोहराना पड़ता है, शिशु की स्थिति भी लगभग वैसी ही होती है। उदाहरण के तौर पर अगर आप नवजात शिशु को जीभ दिखाएं तो वह पलटकर जीभ दिखाता है यानी कि वह सब कुछ जानता-समझता है और जैसा देखता-सुनता है वैसी ही नकल करने की कोशिश करता है।
पहले संयुक्त परिवारों में अगर माता–पिता नहीं तो गोद में उठाकर परिवार का कोई भी सदस्य दादा, दादी, चाचा, चाची, बुआ, ताई या कोई और भी बच्चों को गोद में उठाकर बेशुमार बातचीत किया करते थे और बच्चों को बातें सुनने की इतनी आदत पड़ जाती थी कि अगर उनसे बातें न की जाएं तो वे रोते थे। ब्रज प्रदेश में मजाक में कहा जाता था कि देखो बातें न करने के कारण यह कैसा रो रहा है। कितना बतकुट हो गया है। परिवार के सदस्यों की बातचीत सुन-सुनकर बच्चे बहुत जल्दी बोलने लगते थे लेकिन अब एकल परिवारों में जहां बच्चे या तो आयाओं के भरोसे हैं या डे केयर सेंटर के, वहां उनसे बातचीत कौन करे।
अमेरिका में रहने वाली एक लड़की ने एक बार दिलचस्प बात बताई जो ऊपर छपी रिसर्च की बातों को भी साबित करती है। उसके बेटे का जन्म हुआ तो उसके माता-पिता जाने वाले थे। मगर उन्हें वीजा नहीं मिला। इस कारण से बच्चा माता-पिता के साथ परिवार में तो रहता था, मगर दिन भर पालने में पड़ा रहता था। उन दिनों मां नौकरी नहीं करती थी। वह दिनभर काम में लगी रहती और पिता दफ्तर चले जाते। ऐसे में बच्चे को सिवाय खिलौनों के और कोई सहारा नहीं था। इस कारण यह बच्चा बहुत देर से बोलना सीखा। कुछ साल बाद इस बच्चे की बहन का जन्म हुआ। तब तक यह परिवार अमेरिका से स्विट्ज़रलैंड में आ बसा था। यहां बच्ची के जन्म के बाद उसके नाना-नानी आए। वे तीन महीने तक साथ रहे। उनके जाने के बाद दादा-दादी आ पहुंचे। वे भी तीन महीने रहे। इस तरह छह महीने तक इस बच्ची को कभी तेल लगाते तो कभी बोतल से दूध पिलाते लगातार वे बातें करते रहते। नहलाते वक्त भी वे बातें जारी रहतीं। बातें तभी रुकतीं जब बच्ची सो जाती। इसका परिणाम यह हुआ कि बच्ची सात-आठ महीने में न केवल बोलने लगी बल्कि खड़ी होने की कोशिश भी करने लगी।
हमारे घर-परिवारों में पुराने जमाने से लोग इस बात को जानते हैं कि बच्चे को अगर बोलना सिखाना है तो उससे बातें करना कितना जरूरी है। अरसे से ये बातें कही भी जा रही हैं कि एकल परिवारों के बच्चे अकेलेपन का शिकार हैं क्योंकि उनसे बातें करने वाला कोई नहीं, उनकी सुनने वाला कोई नहीं। अब शिशु भी समय की इस कमी का शिकार हो रहे हैं।
ऐसे में ये सोचना पड़ता है कि क्या किया जाए। घर चलाना है, महंगाई से निपटना है, भविष्य के लिए कुछ जोड़-जंगोड़ करनी है तो माता-पिता को नौकरी करनी ही होगी। पैसा होगा तभी बच्चे भी पल सकते है। हां यह जरूर हो सकता है कि घर में आकर परिवार के लोग अपने बच्चों को कुछ समय दें क्योंकि सोशल मीडिया या इंटरनेट कहीं जाने वाला नहीं है। वह तो बना ही रहेगा और न केवल बना रहेगा, बढ़ता रहेगा मगर आपके बच्चे का बचपन दोबारा नहीं लौटेगा।
अमिताभ बच्चन ने एक बार कहा था कि उन्हें
इस बात का बहुत दुख है कि वे अपने बच्चों को बड़ा होते नहीं देख सके। उनकी
किलकारियों को महसूस नहीं कर सके क्योंकि जब वे बड़े हो रहे थे तो वे
फिल्मों में बहुत व्यस्त थे। इस पछतावे से बचने का यही तरीका है कि बच्चे
के बचपन को महसूस किया जाए। उसकी तोतली बोली में आनंद लिया जाए। गोस्वामी तुलसीदास ने भी लिखा है कि बच्चे की तोतली बातों से माता-पिता बहुत आनंद
पाते हैं।
ऐसा भी होता है कि अपना बचपन लौटता दिखता है। यदि बड़े बूढ़े अपने नाती-पोतों की बातें सुनते हैं तो अकसर उनके माता-पिता की याद कर कहते हैं कि अरे यह तो वैसे ही बोलता है जैसे इसका बाप छुटपन में बोलता था या कि इसकी मां भी ऐसे ही बोलती थी। बच्चों की मासूम हरकतों का दुनिया में कोई सानी नहीं। उनकी मीठी बोली कहीं और सुनाई नहीं दे सकती। क्यों न उनकी मीठी बोली को रिकॉर्ड करके रख लिया जाए, जिसे वर्षों बाद सुनकर उनके बचपन का दोबारा सुख लिया जा सके।
ऐसा भी होता है कि अपना बचपन लौटता दिखता है। यदि बड़े बूढ़े अपने नाती-पोतों की बातें सुनते हैं तो अकसर उनके माता-पिता की याद कर कहते हैं कि अरे यह तो वैसे ही बोलता है जैसे इसका बाप छुटपन में बोलता था या कि इसकी मां भी ऐसे ही बोलती थी। बच्चों की मासूम हरकतों का दुनिया में कोई सानी नहीं। उनकी मीठी बोली कहीं और सुनाई नहीं दे सकती। क्यों न उनकी मीठी बोली को रिकॉर्ड करके रख लिया जाए, जिसे वर्षों बाद सुनकर उनके बचपन का दोबारा सुख लिया जा सके।